मनमाने ढंग से भोजन करना हमेशा गलत है। संसार में जब हर काम के लिये कुछ नियम
हैं, तो भोजन के भी कुछ नियम अवश्य हैं जिनकी उपयोगिता पर प्रकाश डाला जा रहा है-
- ध्यान दें रोजाना कुछ फल तथा कच्ची सब्जी (सलाद) अवश्य ही खानी चाहिए। इनमें पके भोजन की अपेक्षा अधिक विटामिन तथा प्राकृतिक लवण होते हैं।
- सदा स्वच्छ तथा सादा भोजन करें। अनेक जाति के खाद्य पदार्थ एक साथ लेना उचित नहीं है।
- शरीर की मांग पर ध्यान रखते हुये ही भोजन करना चाहिये। अधिक भोजन से धन की बरबादी के साथ ही शरीर में मल इकट्ठा होकर मोटापा एंव सड़न उत्पन्न होती है और हृदय गति तथा रक्त संचार में बाधा पहुंचती है। पहले के लोगों के आहार का अध्ययन करने पर मालूम हुआ कि वे लोग केवल एक से डेढ़ किलो ही खाकर ही 100-125 वर्ष तक जीवित रहते थे।आज तो लोग भूख से नहीं बल्कि अधिकाधिक खाकर ही अपने दांतों से अपनी ही कब्र खोदकर अकाल ही काल के गाल में समा जाते हैं। स्वास्थ्यकर भोजन भी यदि आवश्यकता से अधिक और अनुचित समय में ग्रहण किया जाता है अर्थात् बिना भूख के खाया जाता है तो वह शरीर में मल उत्पन्न करता है।
- भोजन की किस्म से अधिक महत्व भोजन की मात्रा का है।अच्छी किस्म का भोजन भी यदि अधिक मात्रा में खाया जायेगा तो नुकसान होगा जबकि खराब किस्म का भोजन अति अल्प मात्रा में लेने पर उतना नुकसान नहीं करेगा।
- बार बार कुछ खाते रहने की लत बहुत खतरनाक है। दिन में केवल दो बार ही खाना चाहिए। पाचन प्रणाली को दोपहर तक आराम देने (उपवास) से जीवनी शक्ति को शरीर के मल को निकालने का पूर्ण अवसर मिलता है। दोपहर में प्राकृतिक अपक्वाहार तथा रात्रि में पक्व भोजन, यही आदर्श भोजन प्रणाली है। बापू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है “कुछ लोगों के आग्रह से मैंने नाश्ता करना छोड़ दिया। कुछ दिन जरा तकलीफ तो हुई किन्तु सिर दर्द जाता रहा।”
- जिस ऋतु में जो फल ताजा तथा अधिकता से मिले वही खाना चाहिये।
- जिस जलवायु में मनुष्य रहता हो उसके लिए वहीं उत्पन्न फल, सब्जी तथा अन्न हितकारी होता है क्योंकि वह पैदावार उसके लिये अधिक अनुकूल होती है।
भोजन अच्छी तरह चबाकर ही खायें। इसके लिए आवश्यक है –
- एक ग्रास में बहुत थोड़ा भोजन लें।
- अंदर निगलने के पहले जब तक तरल न हो जाय,चबायें।
- जब तक पहला ग्रासन निगल जायें, दूसरा न लें।
- भोजन को चबाते–चबाते लार के साथ इस प्रकार मिला लें कि फिर वह न चबाया जा सके।
- कहा गया है ठोस पीना चाहिए और तरल खाना चाहिए इसका उद्देश्य यही है कि अन्न कण चबाते-चबाते इतना तरल कर लें कि वह पानी की तरह हो जाये और तरल को चुभलाते–चुभलाते लार में इस प्रकार मिला दें कि वह गाढ़ा हो जाए ।
- भोजन के पहले, टहलकर, स्नान करके, प्रभु का ध्यान करके, दोस्तों से मिल–जुलकर अपने को बिल्कुल शांत, ताजा एवं प्रसन्न चित्त बना लेना चाहिए।
- पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक लवण तथा विटामिन युक्त भोजन करना चाहिए। इसके अभाव में शारीरिक विकास रुक जाता है और अनेक रोगों का शिकार होना पड़ता है।
- भोजन करते समय ध्यान भोजन की ही ओर रखना चाहिए।
- केवल उतना ही खायें जिससे भूख शांत हो जाये। सप्ताह में एक रोज अवश्य ही फल, सब्जी के रस या पानी पीकर उपवास करना चाहिये। पानी में नींबू क रस व शहद मिला सकते हैं।
भोजन के सम्बंध में गीता का यह श्लोक सदा स्मरण रखना चाहिये-
आयुः सत्व बलारोग्य सुख प्रीति विविर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्विक प्रियाः॥
आयु, बुद्धि, बल आरोग्य, सुख और प्रति को बढ़ाने वाले
एवं रसयुक्त, चिकने और स्थिर रहने वाले तथा स्वभाव से ही
मन को प्रिय, ऐसे आहार अर्थात् भोजन करने के पदार्थ तो, सात्विक पुरुष को प्रिय होते हैं।
रामायण की यह चौपाई भी साक्षी बनाने योग्य है-
भोजन करिअ तृपित हित लागी।
जिमि सुअसन पचवै जठरागी।।
भोजन तृप्तिकारी तथा हितकारी हो और साथ ही जठराग्नि उस अच्छे भोजन को पचा दे।
जिस भोजन का सार शरीर मे बहुत काल तक रहता है।
उसको ही “स्थिर रहने वाला कहते हैं भोजन के सम्बंध में यह भी स्मरण रखने योग्य है
निशान्ते च पिवेत जलं दिनांतेचपिवेत दुग्धं,
भोजनान्तेचपिवेत तक्रं, वैद्यस्य किं प्रयोजनम्। वैद्य जीवन
रात के अन्त में जल पीयें, भोजन के अंत में मठा पीयें और
दिन के अंत में दूध पीयें तो वैद्य की क्या आवश्यकता ?
क्या–क्यों न करें मांस मछली का निषेध होना चाहिये
और विशेष कर गरम ऋतु तथा जलवायु में तो यह बहुत ही हानिकर है। यही कारण
है कि गरमी के दिनों में लोग मांस–मछली खाकर रोगी होते ैं।
- बिना भूख कभी मत खायें। ऐसा भोजन विजातीय द्रव्य हो जाता है जैसा कि सुश्रुत
में कहा है–
“पहले का भोजन किया हुआ जठराग्नि द्वारा ठीक–ठीक नहीं पचा हो तब दूसरा भोजन
करना उचित नहीं क्योंकि जब पहले का आहार बिना पचा हो उस पर भोजन करने से जठराग्नि नष्ट हो जाती है।”
- चिंतित, शंकातुर, भय अथवा थकी अवस्था में नहीं खाना चाहिये। इस अवस्था में स्नायु उत्तेजित होने के कारण पाचक रस का स्राव प्रायः स्थगित रहता है और उस समय का भोजन विष हो जाता है। सोने के बाद उठकर तुरन्त नहीं खाना चाहिये, उसय समय पाचक स्राव की गति मंद रहती है क्योंकि वह ग्रथियां भी सोई रहती हैं।
- भोजन करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये इससे भोजन के लिए पर्याप्त पाचक रस स्राव नहीं हो पाता। बहुत जल्दी–जल्दी भोजन न करें। इससे भोजन विरूद्ध मार्ग में जाने लगता है, अवसन्नता पैदा करता है, भोजन अमाशय में नहीं रहता, वमन हो जाता है। भोज के गुण दोष की पहचान भी नहीं होती अतः बहुत जल्दी भोजन नहीं करना चाहिये।
- बहुत धीरे–धीरे रुककर भी भोजन नहीं करना चाहिये इससे कभी तृप्ति नहीं होती। इसलिए यह बहुत अधिक खाया जाता है।
- भोजन करते समय व्यापार, समाज अथवा गृहस्थी सम्बंधी समस्याओं पर चर्चा नहीं करनी चाहिये।
- ऐसी कोई चीज न खायें जिसे खाने की आपकी स्वाभाविक इच्छा न हो।
- उत्तेजक पदार्थों की सहायता से भोजन नहीं करना चाहिये। मिर्च, मसाला, अचार, चाय, काफी ऐसे उत्तेजक द्रव्यों के व्यवहार से सच्ची भूख मारी जाती है। यह भी समझना कठिन हो जाता है कि कितना खाना चाहिये।
- न तो ज्यादा गरम और न ज्यादा ठण्डा खाना चाहिये। यदि कभी खायें तो धीरे–धीरे खायें ताकि अंदर जाते–जाते वह शरीर ताप जितना होकर आसानी से पच जाए।
- प्रसन्न होकर खाएं पर खाते समय हंसे नहीं वरना श्वास नली में अन्न चले जाने से तकलीफ हो सकती है।
- जो कुछ हो उसे प्रेमपूर्वक खायें न कि मुंह बिचका अथवा नाक भौं सिकोड़कर वरना वह भोजन ही विष हो जायेगा।
- गले में जलन हो अथवा दुर्गंधयुक्त वायु खुले तो न खायें। इससे पेट एवं रक्त में उफान–सड़ान होता है।
- दुष्पाच्य अथवा भारी भोजन न करें।
- भोजन के साथ पानी कदापि न पियें वरना पाचन क्रिया में गड़बड़ी होती है।
- बासी एवं दुर्गंधयुक्त भोजन नहीं करना चाहिये। इसमें कीटाणु हो जाने से रोग का जन्म हो जाता है।
- तीव्र रोग में भोजन नहीं करना चाहिये।
- बिना स्नान किये नहीं खाना चाहिये। क्रोध में भी भोजन नहीं करना चाहिये।
- भोजन के बाद तुरंत कोई श्रम का कार्य नहीं करना चाहिये। इससे पाचन क्रिया में गड़बड़ी होती है।