दिनचर्या क्या होती है ?
दिनचर्या शब्द दिन + चर्या दो शब्दों के मेल से बना है। इसलिए दिन का अर्थ है – दिवस तथा चर्या का अर्थ है – चरण अथवा आचरण से हैं। और दिनचर्या क्या होती है ?
हर दिन किया जाने वाला आचरण दिनचर्या कहलाता है। दिनचर्या एक ऐसी समय सारणी है जिसके अनुसार पूरे दिन में किए जाने वाले कार्य क्रमबद्ध तरीके से किए जाते हैं।
आयुर्वेद शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि – हमें पूर्ण रूप से स्वस्थ रहने के लिए प्रकर्ति में जो क्रम दिए गए हैं, उन्हीं के अनुसार अपने शारीरिक कार्यो को क्रमबद्ध तरीके से करना चाहिए।
दिनचर्या के अन्तर्गत अच्छे आहार व चेष्टा को रखा गया है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में दिनचर्या का वर्णन मुख्य रूप से स्वास्थ्य कि रक्षा हेतु किया गया है।
दिनचर्या की परिभाषा
दिनचर्या रोजाना किये जाने वाले कर्मों की एक क्रमबद्ध श्रृंखला है। जिसका हर एक अंग अत्यन्त महत्वपूर्ण है और सही क्रम से किया जाता है।
आयुर्वेद के ग्रन्थों व नीतिशास्त्रों में दिनचर्या क्या होती है ? इस सवाल को इस प्रकार परिभाषित किया गया है।
“प्रतिदिनं कर्त्तव्या चर्या दिनचर्या“
अर्थात् प्रतिदिन करने योग्य चर्या को दिनचर्या कहा जाता है।
“दिनेदिने चर्या दिनस्य वा चर्या दिनचर्या।
अर्थात् प्रतिदिन की चर्या को दिनचर्या कहते है।
जो अभी तक आए नहीं हैं एंवम सम्भावित दुखों और रोगों को रोकने के लिए जो चिकित्सा विधि है। वह दिनचर्या है।
वैज्ञानिक आधार
धरती के ऊपर कोई भी प्राणी अमर नहीं रहता है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। किसी को भी मृत्यु से छुटकारा नहीं मिल सकता है।
लेकिन आप रोगों को अवश्य दूर कर सकते हैं। क्योंकि शरीर के द्वारा ही हम सुखों एंव दुखों का भोग करते हैं।
इसलिए मनुष्य को संसार में सब कुछ छोड़ कर अपने शरीर को स्वस्थ रखना चाहिए।
शरीर को स्वस्थ रखने के लिए ही आयुर्वेद में दिनचर्या, ऋतुचर्या, रात्रीचर्या का वर्णन किया है। स्वास्थ्य रक्षा के लिए पालनीय नियमों का एक ऐसा वृत्त, जिसे स्वस्थवृत्त कहते हैं।
स्वस्थवृत्त के अन्तर्गत प्रथम दिनचर्या का वर्णन किया गया है। क्योंकि दिनचर्या का पालन कर स्वस्थ व्यक्ति अपने स्वास्थ्य कि रक्षा कर लंबे और सुखी जीवन कि प्राप्ति कर सकता है।
दिनचर्या के महत्वपूर्ण नियम एंवम वैज्ञानिक आधार
दिनचर्या के पालनीय नियमों के अंदर निम्न कर्म आते है। जिनका वर्णन इस प्रकार है
1. ब्रह्ममूहुर्त में उठना
प्रत्येक मनुष्य को ब्रह्ममुहुर्त (ऊषाकाल) में उठकर धर्म और अर्थ का चिन्तन करना चाहिए, तथा शरीर के रोग और उनके कारणों पर विचार करना चाहिए।
चौबीस घण्टों में सर्वश्रेष्ठ समय ब्रह्ममुहुर्त ही है। इसलिये इस उत्तम समय में निद्रा का त्याग अवश्य कर देना चाहिए।
हर एक सुबह मनुष्य जीवन कि नई शुरुवात होती है। प्रातःकाल का समय अत्यधिक स्फूर्ति व ऊर्जा से भरा होता है।
शारीरिक स्वास्थ्य व मन, बुद्धि आत्मा को प्रसन्नता देने वाला समय प्रातःकाल होता है। अतः मनुष्य को ब्रह्ममुहुर्त (प्रातःकाल) में उठ जाना चाहिए, क्योंकि इस समय
जैसा कि आयुर्वेद के ग्रन्थों में कहा है – ब्रह्ममुहुर्त में उठने से सौन्दर्य, यश, बुद्धि, धन-धान्य, स्वास्थ्य एंवम लंबी आयु की प्राप्ति होती है।
2. आत्मबोध की साधना
प्रातः ब्रह्ममुहुर्त में उठकर आंख खुलते ही यह साधना की जाती है। प्रातः जागते ही पालथी मार कर बैठ जाइये।
दोनों हाथ गोद में रखें। सबसे पहले आज के नये जन्म के लिए ईश्वर का आभार व्यक्त करें। क्योंकि रात्रि में नींद आते ही यह दृश्य जगत समाप्त हो जाता है।
मनुष्य स्वप्न सुषुप्ति के किसी अन्य जगत में रहता है। जागने पर चेतना का शरीर से सघन सम्पर्क बनता है। यह स्थिति एक नये जन्म जैसी होती है।
सर्वप्रथम दोनों हाथ जोड़कर ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव रखें तीन बार लम्बी गहरी श्वास लें एंवम छोड़ें ।
ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण के भाव के साथ – साथ जो भी शुभ संकल्प है उन्हें दोहराएं तथा प्रार्थना करें कि अपना पुत्र समझ कर सदैव हमारा मार्ग दर्शन कीजिए। इस प्रकार अपने भाव रूपी पुष्प अर्पित कीजिए।
वैज्ञानिक आधार
आत्मबोध की साधना ब्रह्ममुहुर्त में बिस्तर में ही की जाती
है। ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण का भाव रखने से मनुष्य को एक शक्ति ऊर्जा प्राप्त होती है।
ईश्वर प्रणिधान द्वारा पूर्ण समर्पण द्वारा यदि जब साधक सभी कर्मो को स्वयं को समर्पित कर देते हैं , तो ईश्वर भी साधक का हाथ थाम लेता है,
और सदैव उसको मार्गदर्शन मिलता रहता है। ईश्वर प्रणिधान से उसके सभी कार्य सिद्ध होते है।
जैसा कि महर्षि पतंजलि ने वर्णन किया है –
“समाधि सिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्।” (पाण्यो०सू0 2/45)
अर्थात् ईश्वर प्रणिधान से समाधि की सिद्धि हो जाती है। अर्थात् जो ईश्वर शरणागति स्वीकार कर लेता है।
ईश्वर की शरण में स्वयं को रखकर और फलेच्छा का त्याग कर निष्काम भाव से अपने कर्त्तव्य कर्मो को करता है।
ईश्वर उसके सभी विघ्नों को स्वयं अपने ऊपर ले लेता है। और उसे समाधि जैसी उच्च स्थिति प्राप्त हो जाती है।
समाधि की सिद्धि एक साधक की दृष्टि से, परन्तु साधारण मनुष्य यदि अपने कर्मो को ईश्वर को समर्पित करते हुए कर्त्तव्य कर्म करे और फल की ईच्छा का त्याग कर कर्म करें तो वह अपने लक्ष्य तक अवश्य पहुँच जाएगा।
3. धरती माता को नमन करना
ब्रह्ममुहुर्त में उठने के पश्चात् धरती माँ को नमन किया जाता है। तथा मातृभूमि के प्रति सम्मान और गौरव भाव रखते हुए निम्न श्लोक को कहना चाहिए।
“समुद्रमेखले देवी पर्वतस्तनमण्डले।
विष्णु पत्नी नमस्तुभ्यं पादस्पर्श क्षमस्व मे।“
अर्थात् मेखला की तरह सभी ओर समुद्र से घिरी हुई तथा पर्वतो से घिरी हुई विष्णुपत्नी, पृथ्वी माता आपको नमस्कार है।
मैं आप पर पैर रखकर अपने दिन कि शुरुवात कर रहा हूँ। मुझे पैरों से स्पर्श के लिए माफ करना।
4. ऊषापान
ब्रह्ममुहुर्त में उठकर उषापान करना चाहिए। ब्रह्ममुहुर्त में सबसे पहली बार पानी पीना ऊषापान कहलाता है। उषःपान के लिए ताजा जल सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
भाव प्रकाश में वर्णन मिलता है –
” सवितुः समुदय काले प्रसृतिसलिलस्य पिवेदष्टौ ।
रोग जरा परिमुक्तो जीवेद वत्सरषतं साग्रम।।”
अर्थात् सूर्योदय के समय जो व्यक्ति चार अंजलि जलपान करता है, वह रोग से मुक्त हो जाता है। बुढ़ापा उसके पास नहीं आता और वह सौ वर्ष से भी अधिक आयु प्राप्त करता है।
जैसा कि आयुर्वेद ग्रन्थों में वर्णन है कि उषापान नासाछिद्रों से जल पीना चाहिए। परन्तु नासाछिद्रों से सम्भव ना हो तो मुख के द्वारा पीया जा सकता है।
वैज्ञानिक आधार
प्रातःकाल पिया हुआ जल आंतों को साफ रखता है। जिससे अनेक रोगों से हमारी रक्षा होती है।
उषापान का जल अन्ननलिका को साफ करता है। उषापान से मलों की अच्छी तरह शुद्धि होकर शरीर में उत्साह की वृद्धि तथा काम विकार, शारीरिक उष्णता, उदर रोग, सिरदर्द, कब्ज, नेत्र विकार दूर होते है।
आयुर्वेद के ग्रन्थों में वर्णन मिलता है
रात्रि का अंधकार दूर हो जाने पर जो मनुष्य प्रातः उठ कर नासिका द्वारा जलपान करता है, वह बुद्धिमान बन जाता है। उसकी नेत्र ज्योति तेज हो जाती है।
तथा उस व्यक्ति के बाल असमय सफेद नहीं होते है तथा वह मनुष्य सम्पूर्ण रोगों से मुक्त रहता है।
5. मलोत्सर्ग
ऊषापान के बाद शौच जाना चाहिए। मल एंवम मूत्र का त्याग तभी करें जब इनका वेग हो, क्योंकि प्रयत्न पूर्वक मलादि का विसर्जन का निषेध किया गया है।
मौन होकर एवं मलोत्सर्ग के समय किसी विषय का ध्यान नहीं करना चाहिए। मलोत्सर्ग के पश्चात हाथ, पैर व मुख को धोना चाहिए।
ऐसा करने से थकावट दूर होती है। इसके बाद अन्य कार्य करने चाहिए।
वैज्ञानिक आधार
मलादि के वेग को रोकना और प्रयत्नपूर्वक उनका विसर्ग दोनों ही रोग का कारण हैं। मल के वेग को रोकने से कब्ज जैसी बीमारियाँ होती हैं।
तथा प्रयत्नपूर्वक मलोत्सर्ग से बवासीर जैसे रोग होने की संभावना रहती है। इसलिए जो लोग मलत्याग का ध्यान नहीं रखते हैं, उनके शरीर में रोगों का संग्रह होता है तथा कई प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं।
इसलिए मल विसर्जन सही समय पर होना चाहिए।
6. दन्त धावन ( दांतों कि सफाई )
मलोत्सर्ग के बाद दन्तधावन कि बारी आती है। प्रातः एवं रात को सोने से पहले दांतों कि सफाई करनी चाहिए।
आयुर्वेद के अनुसार दातुन नीम, बबूल,एंवम अर्जुन आदि वृक्षों कि ताजी हरी लकड़ी की बनाई जाती है।
जो बारह अंगुल लम्बी एंवम अंगुली जितनी मोटी होनी चाहिए। आजकल इसके स्थान पर टूथब्रश का प्रयोग होता है।
आयुर्वेद ग्रन्थों में दातुन के साथ-साथ दन्त मंजन भी आयुर्वेदिक होना चाहिए। आचार्यो ने त्रिकुट, त्रिफला, तैल एवं सेंधा नमक तथा तेजोवती आदि चूर्णो का प्रयोग करने का निर्देश दिया है।
वैज्ञानिक आधार
आयुर्वेद ग्रन्थों में दातुन हरे वृक्षों की लकड़ी की बनाने का वर्णन
किया गया है। क्योंकि यह रोजाना नई उपयोग में होती है। जिससे हमारे मुँह में संक्रमण होने का भय नहीं रहता है।
दातुन करते समय उसे चबाने के कारण मुँह कि मांसपेशियों का व्यायाम हो जाता है, और यह गुण युक्त वृक्षों से बनी होने के कारण औषधि का कार्य करती है।
दंत मंजन के प्रयोग से मुख की दुर्गन्धता का नाश होता है। तथा मसूड़े स्वस्थ रहते हैं ।
निम्न अवस्थाओं में दन्तधावन निषेध है – जैसे गले, तालु, होंठ व जीभ का कोई रोग हो।
7. जिह्वा निर्लेखन ( जीभ कि सफाई करना )
दन्तधावन के बाद जिह्वा निर्लेखन अर्थात् जिभी द्वारा जीभ को साफ करना चाहिए। जिसका वर्णन इस प्रकार से है –
“जिह्वानिर्लेखनं रौप्यं सौवर्ण वाक्षमेव च।
तन्मलापहरं शस्तं मृदुष्लक्ष्णं दषाड.गुलम् ।। “(सू० चि0 अ0 24)
अर्थात् जीभ के मैल को दूर करने वाली जीभी चांदी, सोना या लकड़ी की टेढ़ी , मुलायम, चिकनी और दश अंगुल लम्बी होनी चाहिए, अथवा दातुन को बीच में से चीरकर भी बनाई जा सकती है।
वैज्ञानिक आधार
दाँतों के साथ – साथ जीभ को भी साफ करना चाहिए।
क्योंकि जिह्वा में भी बहुत मैल जम जाती है। जिससे कि मुँह का स्वाद ठीक नहीं रहता तथा दुर्गन्ध आने लगती है।
जिभी से साफ करने से मैल साफ हो जाता है, तथा रसज्ञान की क्षमता बनी रहती है।
8. गण्डूष एंवम गरारे करना
दन्त धावन के पश्चात् शीतल जल का गरारा करना चाहिए। मुख में इतनी मात्रा में जल को भरना चाहिए, जिससे वह मुँह में घुमाया ना जा सके, इसे गण्डूष कहते हैं।
तथा मुख में जल की इतनी मात्रा भरें कि जिससे कि वह मुँह में घुमाया जा सके इसे कवल कहते है। आयुर्वेद ग्रन्थों में गण्डूष (गरारा) व कवल धूप में बैठकर करना चाहिए ऐसा वर्णन किया गया है।
वैज्ञानिक आधार
गण्डूष को दाँतों को दृढ़ करने वाला कहा गया है। इससे दाँत मजबूत होते है। चेहरे की कान्ति बनी रहती है। दाँत दर्द नहीं होता व मसूड़े मजबूत होते है।
मुँह का स्वाद अच्छा रहता है। चेहरे की कोमलता व भोजन में रूचि बढ़ती है। नियमित रूप से इसे करने से होठ नहीं फटते है।
9. अजंन
इन सब के पश्चात आँखों में अजंन लगाना चाहिए। अजंन के प्रयोग
से आपके देखने कि शक्ति मजबूत बनी रहती है।
वैज्ञानिक आधार
नेत्रों में अंजन का नियमित प्रयोग करने से आँखों में
खुजली का नाश होता है, और नेत्र वायु तथा धूप सहने में समर्थ होते है।
नेत्रों का सौन्दर्य बढता है, तथा नेत्रों के रोग होने की सम्भावना नहीं रहती है।
10. नस्य
यह प्रातः एंवम सायं दोनों समय करना चाहिए। शरद एवं बसन्त ऋतु में अणु तैल एंवम देशी गाय के घी से नस्य करना चाहिए। इसे प्रतिमर्श नस्य कहते है।
वैज्ञानिक आधार
नस्य करने से नासागत रोग, नेत्ररोग, शिरोरोग, वली पलित आदि रोगों का नाश होता है, नस्य द्वारा उर्ध्वभाग का तर्पण होता है।
नस्य उर्ध्वजत्रुगत रोगों से बचाव एवं उनकी चिकित्सा में प्रयुक्त होता है। तैल का नस्य श्रेष्ठ माना गया है।
11. व्यायाम
वह शारीरिक चेष्टाएं जो शरीर में स्थिरता एवं बल को बढ़ाने वाली है व्यायाम कहलाती है। आचार्य चरक ने व्यायाम को मात्रावत करने का निर्देश दिया है।
शीत एवं बसन्त ऋतु में व्यायाम अति आवश्यक है, अन्य ऋतु में भी संतुलित मात्रा में ही करना चाहिए। व्यायाम करने वालों को सदा आयु, बल, शरीर क्षमता, देश, काल एवं आहार को ध्यान में रखकर व्यायाम करना चाहिए।
क्योंकि अत्यधिक व्यायाम रोगों का कारण बनता है। अतः अर्धबल तक ही व्यायाम करने का निर्देश आचार्यों ने दिया है। तथा उन व्यक्तियों को जो व्यायाम करने में समर्थ ना हो उन्हें सुबह-शाम घूमने – फिरने का निर्देश दिया है।
जो रोगादि से पीड़ित हो, गर्भिणी या वृद्ध हो, उन्हें सिर्फ चहल कदमी करने का निर्देश आचार्य सुश्रुत द्वारा दिया गया है।
वैज्ञानिक आधार
व्यायाम द्वारा शरीर में स्थिरता एवं बलवृद्धि होती है, शरीर में संतुलित रक्त संचरण होने से शरीर की कान्ति में वृद्धि होती है। शरीर का विकास होता है।
जठराग्नि प्रदीप्त होती है। शरीर में स्फूर्ति, हल्कापन आता है। व्यायाम करने से रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। बुढ़ापा जल्दी से नहीं आता है।
चहल कदमी एक हल्का व्यायाम है, जो वृद्धों, हृदय रोगियों आदि के लिए उत्तम है। अत्यधिक व्यायाम से अनेक रोग उत्पन्न होते है तथा अत्यधिक घूमना जरा और दौर्बल्य कारक है।
व्यायाम के बाद हल्के हाथ से मर्दन करना चाहिए। इससे थकान मिट जाती है।
12. अभ्यंग एंवम मालिश करना
आयुर्वेद में अभ्यंग को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मालिश के लिए सरसों का तेल, तिल का तेल, एंवम अन्य सुगन्धित द्रव्यों से युक्त तेलों का प्रयोग कर सकते हैं।
सभी तेलों में सरसों व तिल का तेल सबसे अच्छा होता है।
त्वचा में वायु का स्थान होता है। इसलिए मालिश करने से वायु से होने वाले रोग नहीं होते हैं। त्वचा में रोमकूपों के होने से त्वचा में लगाया गया तेल शरीर में समा जाता है।
और वायु शान्त हो जाती है। तथा धूप में मालिश करने से तेल जल्दी ही शरीर में चला जाता है। तेल से त्वचा स्नेह प्राप्त कर लचकदार हो जाती है।
वैज्ञानिक आधार
तेल से मालिश करने से बुढ़ापा जल्दी नहीं आता है। इससे शरीर मजबूत और त्वचा कोमल होती है।
त्वचा में नमी बनी रहती है जिससे इसलिए आपकि त्वचा नहीं फटती है।
शिर में तेल कि मालिश करने से सुखपूर्वक नींद भी आती है। और साथ में कंघी करने से बालों में होने वाले रोगों का नाश होता है।
कान में तेल डालने से कानों के रोग नहीं होते एवं कान में मैल जमा नहीं हो पाता ।
पैरों कि मालिश करने से पैरों में रूखापन, बिवाई आदि रोग नहीं होते हैं। पैर के तलवों में मालिश करने से नेत्र ज्योति बढ़ती है।
ज्वर, श्वास संबंधी विकार, एंवम अन्य किसी बीमारी के समय मालिश नहीं करनी चाहिए।
13. स्नान
प्रतिदिन स्नान करना दिनचर्या का आवश्यक अंग माना गया है। नियमित रूप से स्नान करने से अनेक रोगों का नाश होता है। एंवम शीतल जल से स्नान करने से जठराग्नि प्रदीप्त होती है।
नहाने से पहले सिर धोना चाहिए। सिर को हमेशा शीतल जल से धोना चाहिए। और अधिक ठंडे पानी नहीं नहाना चाहिए।
शीत (सर्दियों) ऋतु में गर्म जल का प्रयोग एवं उष्ण (गर्मियों) ऋतु में ठंडे जल का प्रयोग करना चाहिए।
वैज्ञानिक आधार
स्नान करने से शरीर पवित्र होता है। आयु बढ़ती है, थकान दूर होती है। शारीरिक बल बढ़ता है और ओज उत्पन्न करता है।
नहाने से ह्रदय खुश होता है। श्रेष्ठ इन्द्रिय शोधक, प्यास का नाश करने वाला, दाह, थकावट को दूर करने वाला होता है। स्नान पापनाशक रक्त को शुद्ध करने वाला तथा अग्नि को प्रदीप्त करता है।
स्नान के तुरन्त बाद मर्दन नहीं करना चाहिए। ज्वर, कर्णशूल अतिसार, अजीर्ण आदि रोगों की सम्भावना रहती है, तथा भोजन के बाद स्नान नहीं करना चाहिए।
14. वस्त्रधारण
सदा नर्मल वस्त्रों को ही धारण करना चाहिए। एंवम दूसरे के पहने हुए वस्त्रादि नहीं पहनने चाहिए। सोने, बाहर निकलने तथा देवपूजन के वस्त्र अलग – अलग होने चाहिए, तथा ऋतुओं के अनुसार ही वस्त्र धारण करना स्वास्थ्य के लिए उत्तम है।
शीतकाल में ऊनी (गर्म) तथा ग्रीष्म में कषाय (श्वेत) तथा वर्षा ऋतु में रंगीन वस्त्र पहनने चाहिए। किसी दूसरे का पहना हुआ वस्त्र, जूता आदि नहीं पहनने चाहिए।
वैज्ञानिक आधार –
निर्मल वस्त्र आयु को बढ़ाने वाले तथा दरिद्रता का नाश करने वाले होते हैं। निर्मल वस्त्र प्रसन्नता प्रदान करते हैं, तथा निर्मल वस्त्रों से मनुष्य श्रेष्ठ व्यक्तियों के मध्य बैठने योग्य बनता है।
ऋतुओं के अनुसार वस्त्र उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करते है।
15. सन्ध्योपासना एवं ध्यानादि
प्रतिदिन प्राणायाम, सूर्योपासना गायत्री मन्त्र का
जाप एवं ईष्ट देव का पूजन करना चाहिए। प्रातः काल में उपासना का बहुत ही महत्व है। उपासना करने से दीर्घायु, बुद्धि, कीर्ति, सद्प्रवृत्ति, यश की प्राप्ति होती है।
गायत्री मंत्र जपने से पापों का नाश होता है। शरीर के भोजन के साथ – साथ आत्मिक भोजन अधिक आवश्यक है।
आत्मिक रूप से ऊर्जावान व्यक्ति कठिन परिस्थितियों में धैर्य नहीं खोता है, उनका निवारण खोजने में सक्षम होता है।
वैज्ञानिक आधार
सन्ध्योपासना से शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य, चारित्रिक, नैतिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। साथ – साथ बुद्धि, दीर्घायु मेधा शक्ति की प्राप्ति होती है।’
16. स्वाध्याय
स्वयं का अध्ययन करना तथा सद्ग्रन्थों का अध्ययन करना।
ज्ञान द्वारा ही मनुष्य को परम लक्ष्य की प्राप्ति होती है। ऋषियों और महर्षियों ने सम्यक ज्ञान को ही परम साधन बताया है –
“विद्ययाऽमृतमश्रुते” (यजु0 40/14)
अर्थात् ज्ञान से मोक्ष मिलता है, और मोक्ष ही मनुष्य जीवन का परम् लक्ष्य है। इसलिये प्रत्येक मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति के लिए स्वाध्याय करना चाहिए।
वैज्ञानिक आधार
स्वाध्याय से ज्ञान की प्राप्ति होती है। स्वाध्याय से अन्तः प्रज्ञा जाग्रत होती है, तथा विवेक ज्ञान की प्राप्ति होती है।
मनुष्य की सदप्रवृत्ति तथा ज्ञान की प्राप्ति होती है। यश, कीर्ति, गौरव की प्राप्ति होती है।
17.भोजन
आहार शरीर को पुष्ट करने वाला तथा देह को धारण करने वाला
तथ बलकारक, आयु, तेज, उत्साह, स्मृति, ओज और अग्नि को बढ़ाने वाला
होता है।
आहार के सम्बन्ध में निम्न पाँच सूत्र है –
1. क्या खायें – मनुष्य को सदैव हितकारी पदार्थो का ही सेवन करना चाहिए, तथा शुद्ध, सात्विक भोजन लेना चाहिए।
2. क्यों खाएं – शरीर को स्वस्थ व निरोग रखने के लिए भोजन करना चाहिए।
3. कब खायें – आयुर्वेद के अनुसार भोजन दो ही समय करना चाहिए।
4. कितना खायें – मनुष्य को सदैव थोड़ी मात्रा में खाना चाहिए।
प्रथम भोजन 12 बजे से पूर्व तथा रात्रि 7 बजे तक कर लेना चाहिए।
5. कैसे खाएं – भोजन पहले ईश्वर को अर्पित कर प्रसाद रूप में ग्रहण करना
चाहिए। भोजन को खूब चबा – चबा कर खाना चाहिए, तथा भोजन के एक घंटे बाद पानी पीना आरम्भ करना चाहिए।