भोजन के सम्बन्ध में सर्वप्रथम यह जानना जरूरी है कि भोजन क्यों करें। प्रायः मनुष्य भोजन करता है ताकत के लिए। यही कारण है कि वह अधिक से अधिक मात्रा में
गरिष्ठ भोजन करता है। जबकि सत्यता यह है कि भोजन केवल शरीर का निर्माण करता है, शक्ति नहीं देता। भोजन के अभाव में लगने वाली कमजोरी का कारण
भोजन न करना नहीं है बल्कि मल का उभाड़ है तथा भोजन करने पर शक्ति की अनुभूति का कारण मल के उभाड़ में रुकावट पैदा करके उसे रोक देना है। इसी
भ्रम के कारण मनुष्य रात–दिन खा–खाकर अपने शरीर को रोगी बनाता जा रहा है और उससे मुक्ति हेतु डाक्टरों और दवाओं की शरण में जाकर स्वास्थ्य की खोज में लगा है किन्तु भोजन से आज तक न तो किसी को शक्ति मिली और न ही दवाओं से स्वास्थ्य।
वास्तविकता है कि भोजन से शरीर का निर्माण होता ह तथा शरीर की कोशिकाओं की टूटफूट की मरम्मत हेतु भोजन की आवश्यकता है।शक्ति का सम्बन्ध तो आत्मा से है जो गहरी नींद अथवा ध्यान की साधना के माध्यम से आत्मा द्वारा प्राप्त होती है।अतः हमें समझना होगा कि बढ़ती आयु के अनुसार हमारे भोजन में परिवर्तन की आवश्यकता है। हमारे शरीर का विकास तीन स्तरों में बांटा जा सकता है विकास–काल, विकसित–काल एवं ह्रास –काल।
1.विकास-काल (25 वर्ष तक)
यह समय विकासकाल कहलाता है। महिलाओं का शरीर 22 वर्ष तक एवं पुरुषों का 25 वर्ष तक बढ़ता है। इस अवधि में भोजन की आवश्यकता दो कारणों से होती है
(i) शरीर के बढ़ने या उसके निर्माण के लिये।
(ii) शरीर द्वारा आंतरिक क्रियाओं एवं वाह्य कार्यकलापों के माध्यम से शरीर की कोशिकाओं की टूटफूट की मरम्मत एवं पुनर्निर्माण हेतु।
अतः विकासकाल में पोषण प्रधान भोजन की आवश्यकता है। इस काल में जीवनी–शक्ति अधिक भोजन पचाने की क्षमता भी रखती है।
अतः इस अवधि में बच्चों को दोनों समय पौष्टिक भोजन लेना चाहिए जिसमें सब्जियों की मात्रा भरपूर हो तथा प्रात: 9-10 बजे नाश्ते के रूप में सलाद एवं फल खाने चाहिए। इससे एक ओर तो सफाई का काम ठीक ढंग से हो जायेगा तथा दूसरी ओर पोषण भी पर्याप्त मिल जायेगा। इस काल में शाम को एक पाव दूध के साथ हल्का नाश्ता भी ले सकते हैं।
स्कूल जाने वाले बच्चों को भी दो बार से अधिक अन्नमय भोजन तथा एक बार से अधिक दूध देना उचित नहीं है।विकास काल में उपरोक्त विधि से भोजन दिया जायेगा तो शरीर में पांचों तत्वों का समावेश होगा, विकार एकत्र नहीं होगा, पाचन एवं मल निष्कासन सुचारु रूप से होता रहेगा तथा स्वस्थ कोशाणुओं का निर्माण होगा।
2.विकसित-काल (25 से 60 वर्ष तक)
अधिकतम 25 वर्ष की अवस्था के बाद शरीर का विकसित काल होता है अर्थात् इस समय शरीर को बिल्कुल भी नहीं बढ़ना है। अतः
(i) शरीर निर्माण के लिये भोजन नहीं चाहिए।
(ii) केवल श्रम से हुई कोशिकाओं की टूट–फूट की मरम्मत और पूर्ति के लिये ही भोजन चाहिए।
स्पष्ट है कि विकास काल की अपेक्षा पच्चीस वर्ष के बाद विकसित काल में कम मात्रा में भोजन चाहिए। जो लोग इस अवस्था में भी पूर्व काल की तरह अधिक मात्रा में भोजन लेते हैं वे रोग और थकावट को निमंत्रण देते हैं।
जैसे नये मकान के बनते समय उसके लिये नित्य ईंटें, सीमेंट आदि चाहिए। बन चुकने के बाद सफाई चाहिये। जितनी निर्माण सामग्री की बनाते समय जरूरत थी,
उतनी मरम्मत के समय नहीं चाहिए, यदि उतनी ही ईंटें और सीमेंट आप खपाने कोशिश करेंगे तो मकान में कूड़ा–करकट जमा हो जाएगा। जिन ईंटों ने घर बनाया था वही
अब बिगाड़ देंगी।
एक पांच मीटर की धोती बनानी है तो आवश्यक सूत काम में लिया और धोती तैयार हो गई। अब सूत बिल्कुल नहीं वरन् सफाई चाहिए। प्रयोग करते–
करते जब धोती फटेगी तो उसे सीने के लिए सूत चाहिए लेकिन बहुत थोड़ा। पच्चीस वर्ष के बाद तो एक मिलीमीटर भी नहीं बढ़ना है। अगर लम्बाई पांच फुट नौ
इंच हो गई, अब दस इंच नहीं होगी, अब शरीर निर्माण के लिये भोजन नहीं चाहिए। अब तो शरीर की आंतरिक क्रियाओं द्वारा तथा आप जो काम करेंगे,
उससे आपके शरीर के कोश टूटेंगे, उनकी क्षति पूर्ति के लिए थोड़ा भोजन चाहिए और वह भी परिश्रम के बाद।
अतः 25 वर्ष के बाद सफाई कार्य को अधिक महत्व देते हुए सुबह से 11-12 बजे तक कुछ नहीं,
दोपहर में केवल अपक्वाहार तथा रात्रि में एक समय अन्नमय भोजन लेना चाहिए जिसमें सब्जी ज्यादा अनाज कम हो। स्वाद की दृष्टि से तथा मन की संतुष्टि हेतु सायंकाल हल्का नाश्ता ले सकते हैं। इस अवस्था में दूध की आवश्यकता नहीं रह जाती।
कभी–कभी दूध अथवा दूध की बनी सामग्री ले सकते हैं। इस अवस्था में समय–समय पर सफाई की दृष्टि से उपवास भी करते रहना चाहिए।विकास– काल की अपेक्षा विकसित–काल में पाचन शक्ति कम होने लगती है। अतः अधिक भारी भोजन खाने से बचें।
अम्लीय भोजन कम करते जायें तथा क्षारीय भोजन अधिक लेते जाएं। यदि अपने भोजन के प्रति सचेत न रहे तो जिस भोजन ने आपके शरीर का सुंदर निर्माण किया था, वही भोजन आपके शरीर को बिगाड़ कर रोगी बना देगा।
3.ह्रास -काल (60 वर्ष के बाद)
इस अवस्था में भोजन की मात्रा न्यूनतम होनी चाहिए क्योंकि 60 वर्ष की अवस्था के बाद न तो शरीर का निर्माण होता है और न ही अधिक कोशिकाओं की टूटफूट होती है। शारीरिक श्रम ना के बराबर रह जाता है। पाचन की क्षमता तथा मल निष्कासन की क्षमता भी पहले के मुकाबले कम होने लगती है। इस समय फलों का रस, फल, सब्जियों का सूप एवं सब्जियों आदि का सेवन बढ़ा देना चाहिए तथा अनाज का प्रयोग न्यूनतम करना चाहिए।
विशेष : व्यक्ति की अवस्था कोई भी हो, मगर इन बिंदुओं पर विशेष ध्यान देना होगा।
- श्री भगवद्गीता के अनुसार बिना खिलाए खाना पाप है। इसे प्रसाद रूप में ही ग्रहण करना चाहिए। अतः अपनी सभी भोज्य सामग्री से चतुर्थांश (चौथाई हिस्सा) भगवद्सेवा की भावना से भगवान को अर्पण करके खाना चाहिए। सेवा न करने से भोजन से तृप्ति नहीं होती और व्यक्ति स्वाद के लालच में फंसकर अधिक भोजन खाता है और रोगी होता है।
- जितना महत्व आप भोजन को देते हैं उससे अधिक महत्व इस बात का है कि मल निष्कासन भी सुचारु रूप से होता रहे। ‘जितनी बार खाएं उतनी बार जाएं‘ का सिद्धान्त ध्यान में रखें। दो बार शौच की आदत डालें। बच्चों पर विशेष ध्यान दें कि प्रातः उनका पेट साफ हुआ या नहीं। बिना पेट साफ हुए अंदर कुछ भी डालना अनुचित है।
- दोनों समय स्वत:शौच न आये तो एक पाव सादे पानी का एनिमा लेने में कोई हानि नहीं है। एनिमा का प्रयोग बालक, युवा, वृद्ध सभी कर सकते हैं।
- जब उपवास करें तो बचे हुए अन्न का वितरण अवश्य कर दें तथा उपवास काल में एनिमा अवश्य लें।
- क्रोध एवं तनाव की स्थिति में भोजन न करें। उस अवस्था में ठण्डा पानी, जूस या फल ही लें।
- भोजन घड़ी देखकर नहीं बल्कि मस्तिष्क की सच्ची मांग को पहचान कर ही करें।
- अच्छी किस्म का भोजन भी यदि अधिक मात्रा में लिया जायेगा तो नुकसान करेगा जबकि खराब किस्म का भोजन कभी परिस्थितिवश थोड़ी मात्रा में ले लिया जायेगा तो नुकसान नहीं होगा। अतः कभी विवाह आदि अवसर पर दोनों समय भोजन लेना पड़े तो मात्रा बहुत कम होनी चाहिए।
- साप्ताहिक,पाक्षिक, मासिक तथा नवरात्र उपवास से हमारे खानपान की गलतियों का निदान होता रहता है। अतः भोजन के साथ उपवास के प्रति भी सचेत रहें।
- भोजन से शक्ति मानकर खाना, किसी के कहने से खाना, आवश्यकता से अधिक खाना तथा बिना खिलाए खाना ईश्वर की उस शक्ति का अपमान है जो भोजन को पचाने की सेवा कर रही है।
- जब आपको अंदर से भोजन के प्रति अरुचि हो, जी मिचला रहा हो, मुह में छाले हों, मुंह का स्वाद खराब हो, उल्टी की इच्छा हो अथवा भोजन की महक अच्छी न लगे तब समझना चाहिए कि आपको भोजन की नहीं उपवास की आवश्यकता है।
इस प्रकार यदि हम अपनी आयु को ध्यान में रखते हुए अपने भोजन क्रम को भली प्रकार समझकर खाएंगे तो भीतर से ईश्वर की शक्ति और स्वास्थ्य का प्राकट्य होगा और आप दीर्घायु को प्राप्त होंगे।